भृतहरि आश्रम

महाराजा भृतहरी का जन्म उज्जैन नगर में महाराज गन्धर्वसेन के घर में हुआ। ये दो भाई तथा एक बहिन थी। बड़े भाई महारज भृतहरी तथा छोटा भाई विक्रम था। इनकी बहिन का नाम मैनावती था।
बताया जाता है कि एक बार गोरखनाथ जी एवं भरतनाथ जी उपवन में तपस्या कर रहे थे। उधर से मेनका नाम की अप्सरा नाच गान कर रही थी । भरतथन उसके रुप और सौन्दर्य पर आसक्त हो गए। गोरखनाथ जी भरतनाथ के मन की बात पहचान कर बोले योग भोगने की इच्छा है तो भरतनाथ जी में गुरुजी से छिपावन करके हाँ कह दिया । गुरुजी से आज्ञा लेकर भरतनाथजी महाराज गन्धर्व सेन के यहां उज्जेन में आकर जन्म लेते है। मेनका अप्सरा पिंगल देष में पिंगला के नाम से अवतरित होती है। गन्धर्व सेन के बाद भृतहरी राज्य सिंहासन पर आरुढ़ होते हैं तथा पिंगला से अपनी शादी करते हैं। भृतहरी तथा पिगंला में बड़ा भारी प्रेम था। राजा भृतहरी पिंगला के बिना तथा पिंगला भृतहरी के बिना नहीं रह सकती थी। महाराज भृतहरी एक बार जंगल में षिकार खेलने जाते है। जंगल में एक हिरणों का झुंड देखकर अपना तीर चला देते हैं। उस झुण्ड में 70 हिरणी तथा एक हिरन था। वह तीर हिरण के लगा और हिरण अपने प्राण त्याग दिए। भृतहरी घोड़े पर उसको लेकर चलने लगे तो हिरणी उनके पीछे-पीछे बुरी तरह से क्रन्दन करती हुई चलने लगी। एक पहाड़ी पर गोरखनाथजी तपस्या कर रहे थे। दुख भरी अवाज सुनकर वहां आ जाते हैं तथा जाते हुए भृतहरी को रोक लिया कहने लगे इन निरपराध जीवों ने तेरा क्या बिगाड़ा है जो इनको इतना कष्ट दे रहा है। इस मृग को जिन्दा कर नही तो मैं तुझे श्राप देऊँगा। भृतहरी जी कहने लगे महाराज हम तो राजा महाराजा हैं षिकार करना हमारा कर्म हैं। गोरखनाथ जी बोले क इस हिरण के पीछे 70 हिरणी हैं इनका सबका जीवन बर्बाद है तो गोरखनाथ जी दया करके मृग को जीवन दान देते है।
गोरखनाथजी की सकलाई देखकर राजा उनके पैरों में पड़कर कहने लगा महाराज मुझे श्री गुरुदीक्षा देवो। गोरखनाथ जी कहने लगे राजा तेरी रानी पिंगला पतिवृता स्त्री है उसकी आज्ञा लेकर आयेगा तो ही में गुरु दीक्षा देऊँगा। महाराज भृतहरी राज दरबार में आते है और सारी बातें पिंगला को बताते है। रानी पिंगला कहने लगी महाराज मैं आपको गुरु दीक्षा नहीं लेने दूंगी क्योंकि पति बिना स्त्री के सब हार श्रृंगार एवं जीवन ही व्यर्थ है। तो राजा भृतहरी रानी पिंगला के प्रेमजाल में फँसकर वहीं राजपाट में लग जाते है। एक रोज भृतहरीजी महाराज रानी पिंगला के प्रेम की परीक्षा लेने के लिए एक मंत्री को साथ लेकर जंगल में जाते हैं। वहां एक हिरण को मारकर अपने राजसी वस्त्रों को उसके खूनमें लबालब करके मंत्री को देकर कहने लगे कि इन कपड़ों को जाकर राजरी पिंगला को दे देना और कहना कि राजा को तो शेर खा गया। मंत्री ने वैसा ही किया। रानी पिंगला ऐसी अटपटी एवं दुख भरी वाणी सुनके एकदम सुन्न हो गई। काटो तो खून नही। महल शमषान के समान दीखने लगा। इधर उधर भाग भाग रद दीवारों के टक्कर मारने लगी। हाय पतिदेव हाय पतिदेव की वाणी से पूरा महल गूंजने लगा । पागल की तरह विलाप करने लगी। देष बिखर गए कपड़े फट गए। रानी पिंगला पास पड़ी तलवार से अपना शीष काटकर उन कपड़ों पर चढ़ा देती है। मंत्री ने घबराकरमहल में बीती सारी बातें राजा को बताई तो राजा का बुरी तरह से हाय पिंगला हाय पिंगला करना चालू कर देता हैं।
पिंगला में तो तेरे बिना एक पल भी जीवित नही रह सकता। मैं तेरे चरणों का दास हूँ तू एक बार मुझसे आकर बात तो कर । इस प्रकार से महाराज भृतहरी रानी पिंगला की अर्थी के पीछे-पीछे विलाप करते हुए शमषानों में जाते हैं।
पिंगला को शमषानों में जलाने के बाद सारी नगरी के लोग वापस आने लगे लेकिन राजा भृतहरी नहीं आए सब लोगों ने समझाया महाराज आप प्रजा के पालनहार हो आप ही ऐस करोगे तो प्रजा का क्या होगा। आप परम सुन्दरी स्त्री और भी ला सकते है। आप तो राजा है लेकिन महाराज के एक भी बात नही लगी। पांचसात दिन वहीं शमषान में बीत गए। पिंगला की याद में पागल हो गए। शरीर सूख गया । हड्डियां शेष रह गई। गोरखनाथजी भृतहरी की हालत पर दुखी होकर एक चीपी हाथ में लेकर वही शमषान में लेकर जोर से डालते हैं तो चीपी टूट जाती है। वहीं बैठकर हाय चीपी की धुन लगा दी। भृतहरी जी देखते हैं कि भाई इस साधू को क्या हो गया तो एक चीपी (समुद्र का बेल होता है तो पानी के काम आती है) के लिए रोता है। जाकर गोरखनाथ जी को कहते है हे महाराज आप व्यर्थ में ही रो रहे हैं। ऐसी चीपी तो मै हजारों मंगा दूँगा।
गोरखनाथजी कहने लगे कहीं नहीं मिल सकती लेकिन तू क्योे रो रहा है। बोले महाराज मेरी तो एक परमप्रिय स्त्री रानी पिंगला थी जो मुझे प्राणों के समान प्यारी थी मैं उसके बिना सुखी नहीं रह सकता। गोरखनाथजी बोल पाँच तत्व की काया बनती है। ये नष्वर शरीर है ये तो एकना एक दिन मिट्टी में मिलेगी ही। भगवान का भजन की सत्य है और संसार मिथ्या है। भृतहरी महाराज गोरखनाथजी के चरणों में पड़ गए। कहने लगे महाराज या तो मेरी पिंगला रानी से मिला दे नही तो मैं मेरे प्राण त्याग दूँगा। गोरखनाथ ने कृपा करके वही 360 पिंगला रानी खड़ी कर दी। राजा भृतहरी आगे बढ़ने लगे तो गोरखनाथजी बोले किसी भी पिंगला के हाथमल लगाना। उनका एक ही रुप, एक ही रंग, एक ही सौन्दर्य देखकर राजा भृतहरी विस्मय में पड़ गए।
महाराज इस माया को समाप्त करके मुझे तो एक ही रानी दे दो। गुरु कृपा से राजा भृतहरी की मायाकी पिंगला लेकर राजमहलों में आ जाते हैं। और घर घर में गोरखनाथजी की चर्चा होन लगी। उधरमच्छन्दर नाथजी महाराज उपवन में पधारते है। भरतनाथजी का धूणा खाली देखकर चेले गोरखनाथ से पूछने लगे की भरतनाथ का धूणा खाली क्यों है। गोरखनाथजी कहने लगे की भरतनाथ 12 वर्ष राज करने के लिए गया है। साढे ग्यारह साल हो चुके आने ही वाला है । मच्छन्दरनाथजी बोले कि उसे लेकर आवो वो माया जाल में फँस चुका है। प्रिय कवी संत षिरोमणी तुलसी दास जी महाराज ने लिखा है कि-

ग्यानी भगत षिरोमणी त्रिभुवन पति कर जान
तहि मोह माया नर पावन करहीं गुमान
षिवविरंची को मोहई को हे वापुरा आन
अस बिचारी मुनी भजही माया पति भगवान

प्रभु की माया बड़ी बलवती है अतः आप भरतनाथ को लेकर आवो। गोरखनाथजी एक सहीस का भेष बनाकर महाराजा भृतहरी के दरबार में आते है। अपना नाम क्रूरसिंह रख लिया। भृतहरी जीमहाराज के यहां घोडो की सेवा में रहते है। उज्जेन नगरी में एक पहलवान विष्वजीत नाम का था। एक दिन क्रूर सिंह एवं अजीत के आपस में कुष्ती करने के लिए विवाद हो जाता है। क्रूरसिंह राजदरबार में जाकर जीत से कुष्ती करने की याचना करता है। महाराज समझाते हैं पर क्रूर सिंह दृढ़ कर लेता है। महाराज सभी रजवाड़ों में दिन निष्चित करके अजीत एवं क्रूरसिंह की कुष्ती का निमंत्रण फेर देते हैं। दूर दूर के राजा महाराजा उपस्थित होत हैं। कुष्ती चालू होती है। क्रूरसिंह अजीत पहलवान को दांव लगाकर उसके प्राण निकाल देता है। रानी पिंगला झरोखे से देख रही थी। क्रूरसिंह की वीरता, रुप, सौन्दर्य, पर आसरु होकर नौ करोड़ का हार क्रूरसिंह को पहना देती है।

पिंगला उसी की याद में बेचैन रहने लगी। अपनी दासी को बुलाकर पत्र लिखती है एवं क्रूरसिंह को अपने महल में बुलाकर चोपड़ पासे खेलने लगती है। इतनी देर में विक्रम कहीं से आ जाता है। महल में भाभी के साथ एक अजनबी आदमी की आवाज सुनकर विचार करते है कि पिंगला में महल में विचित्र आवाज किसकी आती हैं । कुन्दी खुडकाता है। पिंगला रानी पिछवाले से सहीस को बाहर निकाल देती है। विक्रम कहने लगा भाभी आत तेरे महल में ये अजनबी आवाज किसकी थी। रानी पिंगला धमाकने लगी कि विक्रम मेरे महल में महाराजा के अलावा कोई भी पुरुष आ नहीं सकता। तू मुझे झूठा दोष लगाता है। मैं तेरे मन की बात जान गई । तू मुझे औरत रखना चाहता है नही तो गैर वक्त पर मेरे महल में तेरे आने का काम बता।

रानी पिंगला कोल्डा उठाकर विक्रम को मारती हैं। विक्रम वहां से रवाना हो जाता है और रानी पिंगलात्रिया जाल फैला देती है। हार श्रृंगार बखेर लेती है। दासी के द्वारा नगर के नामी सेठ दीनदयाल को बुलाती है। कहने लगी सेठजी मैं कहूं वैसा तेरे को करना होगा। अन्यथा तुझे कच्ची घाणी में पिलवा दूंगी। सेठ भय के मारे हाँ भर लेता है। पिंगला कहने लगी की महाराज भृतहरी पूछें तो कहना कि महाराज आपका भाई बेटियों से छेड़खानी करता है, महाराज हम तो आपके डर के मारे कुछ नहीं बोलते। इतना समझाकर सेठ दीनदयाल को भेज देती है और कोप भवन में घोर अंधेरा करके सो जाती है। राजा आया, महल में घोर अंधेरा देखकर कहने लगा रानी पिंगला मुझे बता तेरी आज ये हालत क्यों मेरे होते हुए तुझको किसने कष्ट दिया। बता किसके शीष पर काल छा रहा है। रानी कहने लगी महाराज आपका भाई विक्रम बहुत बदमाष हो गया है आज मेरे महल में आया और मुझसे छीना झपटी करी तथा मेरी ये हालत कर दी है। महाराज भृतहरी पिंगला की बात पर विष्वास नहीं करते है। रानी बोली महाराज आप सेठ दीनदयाल को बुलाकर पूछो वो मुझे रोज षिकायत करता है। सेठ को बुलाया गया। पूछने पर राजा भृतहरी को पिंगला की बताई सारी बातें बताई। विक्रम को चार जल्लादों के हाथ सौंपा गया। रानी पिंगला कहने लगी मुझे इसकी आँखें लाकर देना मैं ऐड़ी से इनको फोडूंगी। जल्लाद विक्रम को लेकर जा रहे थे। सेठ दीनदयाल ने पैसे देकर विक्रम को छुड़ा लिया तथा तलघर में उसकी रहने सहने खाने पीने की सारी व्यवस्था कर दी। जल्लाद हिरण मारकर उसकी आँखें पिंगला को ले जाकर दे देते है। पिंगला बहुत प्रसन्न होती है कि आज मेरे रास्ते का कांटा निकल चुका।
कुछ समय बाद महाराजा भृतहरी षिकार खेलने जाते है। जंगल में एक महात्मा जी तपस्या कर रहे थे। घोड़े से उतरकर ढोक दी। महाराज जी आषीर्वाद देते है तथा एक अमरफल देते है। राजा इस अमरफल को खाले तेरी काया अमर हो जायेगी। राजा ने उस अमरफल को पिंगला को दिया पिंगला ने उसको क्रूरसिंह को दिया। क्रूरसिंह ने उसको एक मोहनी नाम की वैष्या थी उसको दिया। वैष्या ने सोचा अमर होकर अपने को क्या करना हैं । उसने उस अमरफल का राजा भृतहरी को दिया। राजा उस अमरफल को पहचान जाते है। क्रोधित होकर पूछने लगे कि सच बताये कहां से लाई।
वेष्या ने सारी बात बता दी । चाकर ने सारा भेद खोल दिया। महाराज मुझे तो रानी ने दिया था। महाराज ने रानी से पूछा तो बोली कि मैं अमरफल खा गई थी। अमरफल को जब राजा दिखाते हैं तो रानी पिंगला सफेद हो गई। महाराजा को ज्ञान हुआ कि ये संसार सब झूठा है। नगर में ऐलान कराया कि मुझे कोई मेरे भाई विक्रम से मिला दे तो उसे आधाराज्य दे दूँगा। सेठ दीनदयाल विक्रम को लेकर उपस्थित हुआ। राजा भृतहरी विक्रम की बाँह में बाँह डालकर फूट-फूटकर रोते है और अपना आधा राज्य विक्रम को एवं आधा राज्य सेठ दीनदयाल को देकर वन में तपस्या के लिए जाते है।
गोरखनाथ जी कहने लगे कि तु रानी पिंगला से माँ कहकर भीख मांगकर लायेगा तो षिष्य बनाऊँगा। राजा झोली लेकर पिंगला को माँ कहकर भीख मांगकर लाते है। रानी पिंगला भी बहुत रोती है कि मुझे छोड़कर मत जाओं। लेकिन भृतहरी जी महाराज किसी की भी नहीं सुनते है। बियाबान वनखण्ड में आकर घोर तपस्या करते है जिनसे आज भी राजा भृतहरी अजर अमर है। उनकी गांव-गांव में घर-घर में पूजा होती है। स्थान पर जाने से एक आराधना करने से दुखी जनों के कष्ट कटते है। मन वांछित फल देते हैं।