अंगिराधाम के पष्चिम से लगभग सात किलोमिटर दूर भृंगी ऋषि का आश्रम आसपास के क्षेत्र के निवासियों के लिए बहुत ही आदर का भाव लिये हुए है। विकट जंगल के बीच बना यह स्थान पहले तो मात्र अवषेषों के आधार पर ही स्थित रहा लेकिन सेन 1995 में एक महात्मा श्री प्रयागदासजी महाराज इस स्थान पर आये और बड़े ही कष्टपूर्ण जीवन जीते हुए अपनी साधना प्रारम्भ की और जल्दी ही इनकी साधना के प्रभाव से प्रभावित हो जनमानस इस स्थान पर आना शुरु हुआ। धीरे-धीरे इस स्थान की सफाई का शुरु हुआ फिर अनेक भक्तों के सहयोग से पानी की व्यवस्था हेतु इंजन की व्यवस्था हुई जिसमें नांगलवाणी की जनता का विषेष योगदान रहो।
मेले का आयोजन कर आयोजकों के माध्यम से एक भजन कुटी का निर्माण स्थान के निर्माण कार्य में मील का पत्थर साबित हुआ। वैष्णव पंथ में उदासी शाखा के महात्मा श्री प्रयागदास जी शजावट स्थान से महात्मा कल्याणदास के षिष्य हैं। आप हठयोग के पथ पर चलने वाले साधु हैं। स्थान पर गये हुये साधू को भगवान समझकर ही सेवा करते है। ऐसे विकट जंगल में जहां जंगली जानवरों का शोर रात को सुनाई पड़ता है आप अकेले ही निःसंकोच भजन साधन में लगे रहते है।
कहते है यहां पर भृंगी ऋषिजी ने भजन साधन किया था। वैसे भी इस क्षेत्र को देखकर अनुभव होता है कि ये क्षेत्र ऋषि मुनियों का रहा है। यहां पर आज भी कभी कभी गुप्त संतो दर्षन हो जाते है। पहाडि़यों की कन्दराओं से शंखध्वनि सत्संग ध्वनि कभी कभी सुनाई पड़ जाती है लेकिन ये सब गिने चुने भाग्यवान सदपुरुषों को ही अनुभव होती है।
अगिराधाम अंगारी से लगभग 25 कि.मी. दूर दक्षिण में दौसा रोड के किनारे पर माता सरसा देवी का विषाल व भव्य मंदिर बना हुआ है। लगभग दस बीघे में बना यह विषाल मन्दिर रोड़ से गुजरने वाले मनुष्य को बरबस ही अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। तथा मनुष्य खिंचा सा अपने आप ही मंन्दिर के अहाते मेें प्रवेष कर जाता है।
नवदुर्गाओं के स्वरुप में से एक स्वरुप सरसा माता के रुप में यहां विराज रही है। जिसके दर्षन कर यात्री अपने जीवन को धन्य समझता है। पहले यह मंन्दिर जीर्णषीर्ण अवस्था में ही था तथा विषेष कोई आयोजन नहीं हुआ करते थे। वेष्य जाति के कुछ गोत्र वाले इस माता के विषेष अनुयायी थे। साल में जात जडूले हेतु ये आया करते थे। लेकिन मन्दिर का विषेष निर्माण नहीं कर पाये थे।
अचानक इस स्थान पर विद्धान सन्त श्री श्यामगिरी जी आये और इस स्थान को अपनी भजन स्थली हेतु चुना। निर्भीक प्रवृति के स्वामीजी ने अपना साधना काल में इस मन्दिर को आधुनिक स्वरुप प्रदान करवाया तथा इस मन्दिर के निर्माण में कोई कसर बाकी नहीं रखी। उन्हीं के साधना काल में ट्रस्ट का निर्माण करवाया गया। लेकिन त्यागी वृत्ति से स्वामीजी अचानक सब छोड़ कर चले गये और अपनी साधना स्थली बलदेवगढ़ में बनाकर बैठ गये। लेकिन उनकी मेहनत आज भी इस मन्दिर के रुप में देखने को मिलती है। ठीक ही कहा है- संतो के आगे कौन चीज बदषाही।