अंगिरा धाम – महर्षि अंगिरा जी की तपोस्थली

अरावली पर्वत श्रंखलाओं में मध्य बसा हुआ गांव अंगारी ब्रर्हार्षि अंगिरा जी की तपोस्थली रही है। इस तपोस्थली पर पहुंचते ही इतनी शांति व आनन्द का अनुभव होता है कि शब्दों में वर्णन करना बहुत ही कठिन है।

पुराणों में बताया गया है कि महर्षि अंगिरा ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं तथा ये गुणों में ब्रह्मा जी के ही समान हैं। इन्हें प्रजापति भी कहा गया है

महिर्ष अंगिरा का आर्विभाव

ब्रह्मा जी के मानसपुत्रों से एक अंगिरा जी प्रजाति भी हैं। सप्त ऋिषियों (मरिच अंगिरा अत्री, पुलस्त्य, पुलह, क्तु और वषिष्ठ) में से एक अंगिरा जी ने बहुत ही कठिन तपस्या की । इनकी तपस्या के प्रभाव से अग्नि देव भी शंकित हो उठे क्योंकि इनका तेज सूर्य से भी ज्यादा बढ़ गया था। उस समय सूर्य देवजी जल में रहकर तपस्या किया करते थे। जब उन्होंने देखा कि अंगिराजी का तपोबल का तेज मेरे तेजसे भी कहीं अधिक होजा जा रहा है तो उनकी तपस्या के सामने मेरा तेज विहीन हो गया है तो उन्हें बड़ासन्ताप हुआ। बड़े ही दीन हीन होकर सूर्य देव अंगिरा जी के पास आये तथा अपना दुःख सुनाया तो अंगिराजी ने उन्हें सांत्वना दिलायी। दिलासा देकर अंगिराजी ने उन्हें समझाया कि मेरी तपस्या से आपकी कीर्ति पर कोई प्रभाव नहीं पडे़गा। आप अग्नि के रुप में देवताओं को भोजन पहुंचावें और स्वर्ग चाहने वालों को उनका मार्ग बतावें तथा अपनी दिव्य ज्योति द्वारा ममुक्षओं का अन्तःकरण श द्ध करें मैं आपको पुत्र के रुप में ग्रहण करता हूँ। सूर्य देव ने बड़ी प्रसन्नता के साथ उनकी बात स्वीकार की और ब्रहस्पति नाम से उनके पुत्र के रुप में प्रसिद्ध हुऐ।

महर्षि अंगिरा नारदजी के साथ साथ भी विचरण किया करते थे। श्रीमद्भागवत में चित्रकेतु महाराज की कथा आती है जिसमें नारदजी व अंगिराजी ने आकर चित्रकेतु महाराज को ज्ञान अर्जित करवाया था। संक्षेप में महर्षि अंगिरा सप्तर्षियों में से एक हैं जो जगत को धारण करते हैं तथा ज्ञान भक्ति, कर्म के विस्तार द्वारा सुप्त जीवों को जाग्रत करके भगवान की ओर अग्रसर करते है।

पद्मपुराण में लेख मिलता है कि एक बार ब्रहा्रमाजी ने पुष्करजी में एक यज्ञ करवाया था जिसमें अनेक ऋर्षि मुनि पधारे थे। उनमें अंगिराजी भी आये थे। लेख मिलता है कि इन सभी ऋषियों ने पुष्कर में अनेक दिन रहकर तपस्या साधना की फिर वहां से जंगलों में विचरण करते हुये पहाड़ों में निकल गये। यह अरावली का क्षेत्र पुष्कर के पहाड़ों से ही जुड़ा हुआ है और इससे यह प्रमाणित हो जाता है कि यह ऋर्षि लोग रमण करते हुये इधर आ निकले इसे अंगिरा धाम के आस पास ही अनेक ऋषियों की तपोस्थली है। शुकदेवजी कर्दमऋषि पाराषर जी उद्दालक पिपलाद ऋषि, भरथहरी तथा भृंगी ऋषिजी की तपोस्थली अंगिरा गांव के आसपास ही है।

एक अन्य मत

प्रजापति ने यज्ञ द्वारा तीन पुत्र उत्पन्न किये भृगु अंगिरा तथा अत्रि भृगु के पुत्र हुए कवि च्यवन आदि । भृगु के ही एक पुत्र थे ऋचीक जिनके बनाये हुए चरुओं से पुत्र विष्वामित्र तथा स्वयं ऋचीक के पुत्र जमदग्नि का जन्म हुआ। बताया जाता है कि अंगिरा के तीन पुत्र उतस्ाि, संवर्त तथ बृहस्पति तथा एक पुत्री वरस्त्री थी। बृहस्पति जी की माता का नाम स्वरुपा था। ये महिर्ष मरिची की कन्या थी। बृहस्पति के चार पुत्र हुए भारद्धाज, अग्नि, पुमूर्धा और शयू। अंगिरा जी के भाई श्री अत्रि ऋषि की तपोस्थली भी अंगिरा धाम से मात्र 55 किमी. दूरी पर आंतेला ग्राम में है जहां पर सति अनसूया ने पांचकुंज आज भी जल से परिपूर्ण हैं। जहां पर माताएँ ऊपर वाले कुंडमें तथा पुरुष नीचे वाले कुंड में स्नान करते है। इस मत से भी गांव अंगारी में ही अंगिरा ऋषि की तपोस्थली प्रमाणित होती है।

विष्वकर्माजी

मरीचि ऋषि की पुत्री स्वरुपा अंगिरा ऋषि की पत्नी से ब्रहस्पति नाम का पुत्र हुआ तथा ब्रहा्रवादिनी नाम की कन्या उत्पन्न हुई। इस कन्या का विवाह धर्म ऋषि के आठवें पुत्र प्रभास वसु से सम्पन्न हुआ। उस प्रभास वसु से जो पुत्र उत्पन्न हुआ नाम ’विष्वकर्मा’ हुआ। इसका विस्तृत वर्णन महाभारत में उपलब्ध है। इनका जन्म भाद्रपद शुक्ला प्रतिपदा को हुआ था।

पुराणों से

पुराणों में बताया गया है की महिर्ष अंगिरा जी ब्रहा्र के मानसपुत्र हैं तथा ये गुणों में उनके ही समान हैं। इन्हें प्रजापति भी कहा गया है। इनके दिव्य आध्यात्मज्ञान, योगबल, तपबल, एवं मन्त्रषक्ति का विषेष प्रतिष्ठा है तथा महर्षि संवर्त भी उन्हीं के पुत्र हैं। महिर्षि अंगिरा की विषेष महिमा है। ये मन्त्रदृष्टा, योगीसेता तथा महान भक्त हैं। इनही ’अंगिरा कृति’ में सुन्दर उपदेष तथा धर्माचरण की षिक्षा व्याप्त है।
ब्रहा्रर्षि अंगिरा का मूलस्थान श्री मणिठिया जी के शब्दों में ’ ब्रहा्रर्षि अंगिरा तथा इनके वंषज अंगिरस ऋषियों के आश्रम कुरुक्षेत्र के निकट सरस्वती नदी के उत्तर में थे। उसे प्राचीन काल में जांगल देष कहा जाता था।

अंगिराजी की दिव्य शिक्षा

(ज्ञानोपदेष) उस परात्पर ब्रहा्र का साक्षात्कार (भजन करने) से हृदय की ग्रन्थि टूट जाती है। सब संषय नष्ट हो जाते हैं और कर्म भी क्षीण हो जाते हैं। जैसे मकडी अपना जाला बनाती है और चाहे जब उसे समेट लेती है। जैसे पृथ्वी से वनस्पतियाँ उत्पन्न होती हैं। जैसे सजीव पुरुष के केष और लोम उत्पन्न होते है वैसे ही अक्षर ब्रहा्र से यह विष्व उत्पन्न होता है। वह जा सर्वज्ञ है (सबको समान रुप से एक साथ जानने वाला है) जो सर्वविद् है (सबमें प्रत्येक का विषेषज्ञ है) जिसका ज्ञानमय तप है, उसी अक्षर ब्रहा्र से यह विष्वरुप ब्रहा्र, यह नामरुप और अन्न उत्पन्न होता है। जो शान्त और विद्वान लोग वन में भिज्ञावृति से रहते हुए तप और श्रद्धा का सेवन करते है, वे शान्तरस होकर सूर्य द्वार से वहां जाते है, जहां पर वह अमृत अव्यय पुरुष रहता है। उसी अक्षर पुरुष से प्राण उत्पन्न होता है, उसी से मन, इन्द्रिय, आकाष, वायु, तेज, जल और विष्व को धारण करने वाली पृथ्वी उत्पन्न होती है।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे

पड़ाक छापली के कुंड

महर्षि अंगिरा जी की तपोस्थली अंगारी से 15 कि.मी. पष्चिम व दक्षिण में एक बहुत ही सुन्दर व रमणिक स्थान है जहां पर पारासर ऋषि ने कुछ दिन भजन साधन किया था। आगे जाते हुये रास्ते में कुछ दिन रुकने को पडाव कहते है। वैसे ऋषि पारासर जी की भजन स्थली खोह दरीबा जाते जाते इस पड़ाव पर पारासर जी ने बारह साल तक का पड़ाव किया और इस स्थान को अपनी भजन स्थली बनाकर पवित्र स्थान बनाया। इसीलिये इस गांव का नाम पड़ाक पड़ा जो आज तक चला आ रहा है।
यहां पर बने सुन्दर सरोवर जो हर समय पवित्र पानी से भरे रहते हैं। प्रत्यक्षदर्षी बताते है कि पहले जब इस कुंड की छटाइ्र करते थे तो सफेद दूध की धार आया करती है।

सर्दियों में पानी गरम तथा गर्मियों में पानी ठंडा रहता है। इस स्थान पर वर्ष में एक बार सुन्दर मेले का आयोजन होत है। इसी स्थान पर अनेकों वर्ष पुराना राधा कृष्ण का मन्दिर भी बना है। कुंड पर एक कहुत ही भव्य षिवालय बना हुआ है।